Tuesday, July 13, 2010

अभिशिप्त जीवन

वो ...जिनकी आँखे हमेशा ही कुछ मांगती हैं ...
क्योंकि स्वाभिमान तो हमारे-आपके लिए जरूरी होता है ...
लेकिन उनके लिए नहीं ...क्योंकि स्वाभिमान से पेट नहीं भरता
क्योंकि उनकी समस्याएं रोटी से शुरू होकर ...
रोटी पर ही ख़तम होती हैं ...केवल रोटी ...
बस पेट की ज्वाला शांत करने के लिए
जो कभी हाथ फैलाते हैं तो ...एक रूपये से कुछ नहीं मांगते
वो जानते हैं उनकी सीमायें और उनकी चादर की लम्बाई भी
उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं हमें ...इसी आस में कि ...
कुछ लोगों के एक-एक रूपये से आज उनकी रोटी बनेगी
मगर अफ़सोस... हमारे एक रूपये भी उनकी रोटी से कीमती हो जाते हैं ...
और हम ...उन्हें दूर से ही "आगे बढ़ने" का इशारा कर देते हैं ...
ये जानकर भी कि ...उस एक रूपये से न हम कंगाल होंगे और न वो मालामाल ...
फिर भी ...यही होता आया है हमेशा से
अपने खुशहाल जीवन पर गर्व करते हुए हम एक बार भी उनके बारे में नहीं सोचते ...
जिन्हें मौत भी किश्तों में नसीब होती है ...

Monday, July 12, 2010

गले से उतरती नहीं बात...


तेज़ बनो ...भलाई का जमाना नहीं है
भला करोगी कुछ नहीं मिलेगा...
अपने बारे में सोचो ...खुद से मतलब रखो ...
और भी नहीं पता नहीं क्या-क्या ...
आते- जाते सिखा जाते हैं लोग ...
और मैं मौन ...
तमाम सवालों से घिरी रह जाती हूँ ...
कौन देगा जवाब ...
आप दोगे पापा ?...
या माँ तुम...?
बोलो ...
मैं ...जो मैं हूँ ...
जानती हूँ ...खुद को नहीं बदल पाउंगी ...
लेकिन जानती हूँ आज की इंसानियत
तभी तो ...केवल खुद से मतलब रखने की ...
गले से उतरती नहीं बात ...

Thursday, July 8, 2010

क्योंकि अब जीना है ...


जिंदगी बिताने को नहीं
अब जिंदगी को जीवन देने के लिए जीना है
बहुत हुआ अब दामन भिगोना ...
किसी की मुस्कान बनने को ...
अब जीना है
हमेशा ही चाहा कोई मार्गदर्शक ...
मगर अब ...
खुद किसी का सहारा बनने को जीना है
जिंदगी के रंगमंच पर एक बेहतरीन किरदार जीने को ...
अब मुझे जीना है ...
अतीत की तिलांजलि देकर ...
भविष्य खुशहाल बनाने को ...
अब इस वर्तमान में आत्मनिर्भर होकर...
मुझे जीना है ...

Sunday, July 4, 2010

मानव जीवन




यह कविता मैंने कॉलेज के दिनों में कॉलेज की ही मैगजीन के लिए लिखी थी ....जो प्रकाशित भी हुई थी ...इसे आज अपने ब्लॉग में शामिल कर रही हूँ ...



जल ,वायु ,मृदा ,अग्नि या आकाश ...


कौन आया पृथ्वी पर सर्वप्रथम


कितना अनबूझ है यह तथ्य ...


जीवन कि उत्पत्ति का


आखिर क्या था सर्वप्रथम ?


क्या गहन अन्धकार था ?


या थी रौशनी की चकाचौंध


क्या केवल जल हा जल था ?


या वनस्पति एकाकी ...


कुछ तो रहा होगा !


किसने देखा होगा वह रोमांचक प्रक्रम ...


जीवन की उत्पत्ति का !


आखिर क्या है सत्य जीवन का ?


क्या सृष्टि है ब्रह्मा की रचना ?


या माना जाए मिलर का प्रयोग...


जड़-तत्वों से बना चेतन !


क्या बना होगा जीवन...


उत्पत्ति के उन आठ चरणों में ?


या सचमुच रही होगी कोई ...


अदृश्य शक्ति !


कौन बताएगा ???


सत्य मानव जीवन का !!!


ग्रन्थ ?


विज्ञान ?


प्रज्ञा ?




Thursday, July 1, 2010

एक कविता


पढ़ा था कहीं...


कि मन के भावों को बस लिख भर देने से


बन जाती है कविता ...


तो फिर कहाँ हैं मेरी तमाम कवितायेँ


जो मैंने कभी लिखनी चाही थी


पर लिख नहीं पायी थी


भावनाओं के आगे बेबस हो जाती हूँ मैं


नहीं उठती कलम उन भावनाओं को लिखने को


जिन्होंने मुझे हजार बार तोडा है


मेरे हालातों पे मुझे ही तरस खाने को छोड़ा है


मुझे भयभीत किया है जमाने के डर से


रुलाया है मुझे स्याह रातों में


...वो सब बातें जो दुःख देती हैं मुझे


उन्हें कविता का रूप देने का साहस कहाँ से लाऊं मैं ...



Friday, May 28, 2010

किसी को अपनी जरूरत न हो तो क्या कीजे...


आज दिन बड़ा उदास बीता...कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी ....दिमाग पर जोर डाल-डाल कर मैं थक गयी ...पर उदासी की वजह नहीं जान पायी...किसी से सुना था कि जब कभी बेवजह मन उदास हो तो रो लेना चाहिए...वो कोशिश मैंने भी की ...और जब आंसू आने शुरू हुए तो सोचने लगी कि मैं रो क्यों रही हूँ ...छि ...क्या मैं कायर हो गयी हूँ या मुझमे परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत नहीं है... फिर मैं चुप हुयी और खुद को दिलासा देने लगी ...फिर सोचने लगी कि दिलासा किस बात कि दे रही हूँ मैं ....सब तो ठीक है ...चल पागल ...कुछ भी सोच-सोच कर दिमाग ख़राब करती रहती है अपना ...हाँ लेकिन ये सच है कि आज सांस तक लेने में तकलीफ महसूस हो रही थी ....मैंने वो सब काम किये जिनसे मुझे ख़ुशी मिलती है ...लेकिन अफ़सोस मुझे कामयाबी नहीं मिली ....सबसे पहले अपना मनपसंद संगीत बजाया ...मधुशाला....हरिवंश राय बच्चन जी की इन गजलों को जब भी सुनती हूँ तो मन को असीम शांति मिलती है ...लगता है की मैं भी सुरा के प्याले में गोते लगा रही हूँ ....उनका एक एक शब्द उस धीमे और मधुर संगीत के साथ आत्मा में उतरने लगता है ...लेकिन आज उन शब्दों का बिलकुल विपरीत ही असर हुआ मुझ पर ....तर्पण-अर्पण करना मुझको पढ़-पढ़ कर के मधुशाला॥
मेरे अधरों पर हो न अंतिम वस्तु न गंगा जल प्याला॥
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे तुम रखना॥
राम -नाम है सत्य न कहना ...
कहना सच्ची मधुशाला॥
ये सब कुछ नया नहीं था मेरे लिए ..लेकिन ये सब सुनकर मन और उचाट हो गया ...मैंने म्यूजिक बंद किया ....जब इससे भी शांति नहीं मिली तो तार-वार सब निकाल कर उसे कबर्ड में डाल दिया ... ताकि वो मुझे दिखाई भी न दे ...फिर सोचा कुछ पढ़ लिया जाए ...ज्ञानवर्धक किताबें न पढ़कर मैंने मनोरंजक किताब 'सखी' उठाई ...कभी-कभी अच्छा लगता है फैशन परक किताबे पढ़ना ....लेकिन आज उसका भी मुझ पर उल्टा ही असार हुआ ....ऐसा लगा कि खुबसूरत लिबासों में सजी साड़ी मॉडल्स मुझे चिढ़ा रही हैं ....वो पन्ने मैंने जल्दी-जल्दी पलट दिए... और जब खाना खजाना की बारी आई तो मुझे किताब बंद करनी पड़ी ....क्योंकि मैं जानती थी कि अगर मुझे अभी कुछ अच्छा खाने का मन कर गया तो बड़ी मुसीबत हो जायेगी ....अच्छा होगा कि इसे बंद कर दूँ ॥
मैंने आज जो महसूस किया वो बड़ा अजीब था ...ऐसा लग रहा था कि मेरा दिमाग बिलकुल खाली हो जाए ...या मैं थोड़ी देर के लिए गायब हो जाऊं ....किसी ऐसी जगह चली जाऊं कि मुझे ही कोई खबर न रहे ...मुझे मेरी कोई जरूरत ही ना रह जाए॥
बड़ी उठापटक के बाद शाम कोई जब ऑफिस आई तो भी लगा कि वही रोज़ की तरह बोझिल काम करुँगी ..लेकिन कैसे तैसे काम निपटाया ...और फिर सोचा कि कुछ लिखा जाए ...कई दिन हो गए ..मैं अभी थोडा ठीक महसूस कर रही हूँ ...इस उम्मीद पर जा रही हूँ कि शायद रात में अच्छी नींद आ जाये ....और आप लोगों को ये सुझाव जरूर देना चाहूंगी कि ...किसी को अपनी जरूरत न हो तो ....ब्लॉग लिखें ....

Thursday, April 29, 2010

कभी-कभी यूँ ही...




कभी-कभी यूँ ही गुमसुम रहना अच्छा लगता है
तमाम नजारों के बाद भी शून्य में देखना
अच्छा लगता हैं...
किसी कि परवाह किये बिना
पत्थर को ठोकर मारते हुए
आगे बढ़ना...
अच्छा लगता है
ग़मों को आंच न दूँ ...
न झूमूँ ख़ुशी में
इसीलिए तो कभी-कभी
संवेदनहीन होना अच्छा लगता है...
जब शहर में रौशनी को तरस रहे हो लोग
तब अँधेरे में खोना अच्छा लगता है...

Monday, April 19, 2010

Sunday, April 4, 2010

सफ़र कैसे तय होगा


मैं चाहती हूँ आकाश की उन ऊंचाईयों को छूना


जहां पहले कभी कोई न गया हो


उन ऊंचाईयों पर पहुँच कर मैं


आकाश हो जाना चाहती हूँ


सारे जहां की खुशियाँ अपने दामन में समेट कर


तुम पर लुटा देना चाहती हूँ


मगर अफ़सोस ...


तुम जो नहीं हो


...अब तक संग मेरे


तुम्हारे बगैर ये सफ़र ...


कैसे तय होगा...?


Friday, March 19, 2010

सवाल कई हैं ....

जब मैंने ये शीर्षक लिखा था तो दिमाग में कोई विशेष सवाल नहीं था ...लिखा केवल इसलिए कि इस विषय पर मैं शायद कुछ अच्छा लिख पाऊं ....

अभी कुछ दिनों पहले कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दी ....मैं ये बिलकुल भी नहीं कहने जा रही हूँ कि ...कोर्ट ने ये सही किया या गलत ...लेकिन सवाल ये है कि वेदों कि आड़ क्यों ली गयी ....कृष्ण और राधा का उदाहरण क्यों दिया गया ... वो लोग दैवीय शक्ति थे ये सभी जानते है ...फिर उन्हें उदाहरण बनाया गया ....आम इंसानो के लिए ..ये कहाँ तक उचित है...

बवाल तो जितना हो सकता था हुआ ...लेकिन सवाल ये है कि इसकी जरूरत क्या थी ....क्या मान्यता न मिलने से पहले भारत में कोई लिव इन में नहीं रहा ...या अगर रहा भी तो उसे किसी बात का डर था ...कई फ़िल्मी हस्तियों ने खुले आम स्वीकारा कि वो लिव इन में रह रहे हैं ....

मैं यहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति की दुहाई नहीं देने जाउंगी क्योंकि कुछ बचा नहीं है हमारे पास .... एक परिवार व्यवस्था थी जो आज भी हमें पश्चिमी देशों से अलग करती थी ...वो भी तैयार है आधुनिकता के रंग में रंगने को ....

बात पश्चिमी देशों कि की जाती है ...वहां तो ये सब आम है ...और फलां-फलां ....लेकिन सवाल ये है कि क्या आप हर मायने में उनकी सोच से प्रभावित होते हैं ... उनके जैसी खुली सोच एक भारतीय कभी नहीं रख सकता .... फिर चाहे वो लाख मॉडर्न मान ले खुद को ... पहले जैसा हम रहना नहीं चाहते .... गंवार कहे जायेंगे ... दकियानूसी ख्यालों के माने जायेंगे ...ऐसे में हमारी स्थिति बीच की हो के रह जाती है ... न तो हम अंग्रेजों कि तरह बिलकुल खुल पाते हैं और न ही एक संस्कारवान भारतीय ही बने रह पाते है ....

नहीं भूलती वो लज्जाशीला वृद्धा

मैं स्टेशन पर पहुंची तो मेरी ट्रेन आने में अभी वक्त था ....सियालदाह एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर लगी थी .... रात का अन्धेरा छंटने लगा था ... सर्दियों का समय था फिर भी अच्छी- खासी भीड़ थी ...फिर याद आया कुम्भ चल रहा है ...ठण्ड तो ऐसी थी कि जान निकल जाये ....पता नहीं लोग गंगा स्नान कैसे कर रहे होंगे... मैंने मन ही मन सोचा ...मैंने देखा वहां सभी खुद को ठण्ड से बचाने की कोशिश कर रहे हैं ...एक दो कुली आग सेंक रहे थे ...कोई पूरा ही चादरमय हुआ था ....और सभी के मुंह से धुंआ निकल रहा था ....और मेरी हालत तो हमेशा कि तरह ही थी ....हड्डियों तक मैं उस ठण्ड को महसूस कर सकती थी ....हालाँकि ओवरकोट, स्कार्फ और कैप से पूरी तरह से लैस थी मैं ...लेकिन ठण्ड किसी की नहीं सुन रही थी...
बड़ी हिम्मत करके मैं टिकट काउंटर पर गयी और टिकट लिया .....तभी ट्रेन आने का अनाउन्समेंट हुआ ..मैं लपक के आगे पहुंची ....ट्रेन आई दुनियाभर की भीड़ लिए ....फिर वही ठेलमठेल ....ये तो सभी जगह होता है ....लेकिन ये जगह जाट लेन का था ...जहां पलभर में लोग मरने मारने पे उतारू हो जाते हैं ...मुझे ये लट्ठमार भाषा सुकर बड़ी हंसी आती है ...एक बोला 'ओ ताऊ आगे बढ़ ले ...ताई तो निकल ली ' उस धक्कामुक्की में भी उनका संवाद पूरा होता है 'ताऊ जी बोले ना रे छोरे आगे नि दिखे पिच्छे छूट ली' ..उस भीड़ में दोनों पैरों पे खड़े होने के लिए जगह मिल जाये तो समझो अच्छे करम किये थे ...और बैठने को जगह मिल जाए तो मानो हम तो गंगा ही नहा लिए ....और मुझे गंगा नहाने का सौभाग्य मिल गया ...एक हाथ ने मुझे मजबूती से पकड़ कर सीट पर बैठा दिया ...जब मैंने बगल में देखा तो घूंघट में एक बूढी औरत थी ...उसने कहा बैठ जाओ ...मैं इत्मीनान से बैठ गयी ...उसके गोद में पांच छह साल कि एक लड़की बैठी थी ...जो नींद में एकदम चूर थी ...और अपनी दादी कि गोद से इधर उधर गिरी जा रही थी ...मैं थोड़ी देर तक वही बैठी रही ...तोड़ी देर में सामने की सीट खाली हुई तो मैं वहां बैठ गयी ...तब मैंने उस वृद्धा को ध्यान से देखा ...नींद उसे भी आ रही थी पर उसका घूंघट अपनी जगह से नहीं हिल रहा था ...बार बार वो अपना घूंघट ही सही कर रही थी ...वो मुझे लगातार देख रही थी ...और जब मेरी नजर उस पर जाती तो वो धीरे से हंस देती ... मैंने उनसे पूछा कहाँ जा रही हैं आप ....उसने बताया कि कुंभ नहाने आई थी ....अब वापस जा रही हूँ गंगापुर ...मैंने उसे ध्यान से देखा उसने घाघरा पहना था और ....लाल ओढ़नी ...एक पतला सा शौल उसे ठण्ड से बचा रहा था ....फिर वो अपने आप ही बताने लगी.... ये पोती है मेरी ...इसके दादाजी पीछे बैठे हैं ....और भी सब अपने गंगा स्नान के बारे में ....मैंने देखा वो बहुत पतली थी ....आँखे बिलकुल अन्दर धंसी हुयी थी उसकी ....फिर वो मेरे बारे में पूछने लगी ....कहाँ जा रही हो ...क्या करती हो ...और भी बहुत कुछ ...मैंने बताया उसे ....फिर थोड़ी देर बाद वो बोली ...लड़कियों को अकेले बाहर नहीं निकलना चाहिए ...जमाना बहुत ख़राब है ...और बिना मर्द मानुस के तो सफ़र बिलकुल नहीं करना चाहिए ....मैंने सोचा कि मैं उसे क्या क्या समझाऊँ ....मैं बस हंस दी थोडा सा ....मैं कुछ भी नहीं बोली क्योंकि मैं जानना चाह रही थी कि एक वृद्ध ग्रामीण स्त्री कि आज के समय को लेकर क्या सोच है ...इसलिए मैंने उसकी किसी बात का खंडन नहीं किया ...और उसकी बातों में दिलचस्पी भी दिखाई ...फिर वो बताने लगी दुनिया जहाँ कि बातें ....पुरुषों की सोच के बारे में ...उसकी बातों का कोई तर्क नहीं था पर जो सच्चाई उनमे थी मैं उसे नकार न सकी ...और फिर ये सोचकर कि मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है इसने , मैंने उसकी बातों का पूरा सम्मान किया .....और सच कहूँ तो वो मुझे बड़ी ज्ञानवान लगी ....मैंने सोचा कि जो ये कह रही है उसमे गलत क्या है ....कुछ भी नहीं ...उसने कहा कि कठिन समय को चुनौती देने से अच्छा है कि उसी के अनुसार चलो ...ये बात उसने किस सन्दर्भ में कही मैं तुरंत भांप गयी ...फिर थोड़ी देर बाद उसके बूढ़े जी आये और पुछा कि चाय पियोगी ...उसने घूंघट और लम्बा कर लिया और बोली ...ना ...
लज्जा बहुत देखि मैंने उसके अन्दर ...या ये कहूँ कि उसने समय को चुनौती न देकर उसका साथ पकड़ लिया ...इतनी देर तक भी उसने आँचल सर से सरकने नहीं दिया था ....उसकी बातों से मैंने पाया कि वो संकीर्ण बुद्धि वाली औरत नहीं है ...वो सब जानती है ...पर उसने खुद को अपने आस पास के माहौल के अनुसार ऐसा ही बना लिया था ...नितांत घरेलू होने के बावजूद समाज में हो रही गलत चीजों के प्रति उसमे कुंठा थी ...जो उसने मुझे बताई...और मैंने महसूस किया कि मेरे सहजता से सुनने पर उसे तसल्ली भी मिली थी ।
मेरा स्टेशन आ गया ...जैसे ही मैं जाने को उठी ...वो अपनी पोती को बगल में बिठाकर उठ गयी ....और मेरे साथ दरवाजे तक आई ...ट्रेन रुक गयी ...मैंने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया ...फिर उसने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा ...संभल के जइयो ॥

जब मैं ऑरो से मिली


मैं उससे पहली बार हॉस्पिटल के मनोरोग विभाग में मिली थी ....उसके बाद वो मुझे कई बार यूनिवर्सिटी के कैम्पस में दिखा ...अब तो वो मुझे पहचानने भी लगा है ...
जब मैंने उसे पहली बार देखा था तो वो मुझे थोडा अजीब सा लगा .....सिर पे बाल नहीं ...चेहरे पे तमाम झुर्रियां ...मोटे मोटे लटके हुए होंठ ....टेढ़ी मेढ़ी चाल ....और फटी फटी सी आवाज़ ...
एक हैल्थ प्रोग्राम के शूट के लिए हॉस्पिटल जाना हुआ ...मनोराग विभाग में ...वहां मैंने उसे देखा ...हँसता- खेलता इधर उधर दौड़ रहा था ...मैंने वहां सभी पेशेंट्स को देखा ...लेकिन वो मुझे सबसे अलग लगा .... सब मरीज अपने -अपने बेड पर थे ...लेकिन वो उनकी तीमारदारी में लगा था ...मैंने उस वार्ड की नर्स से उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि ये ऐसा ही है ....इसे कोई बीमारी नहीं है ...और ये यहीं रहता है ...
उसका नाम कमलुद्दीन था ...सब उसे कमलू कह कर बुला रहे थे .... कैमरा देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी ... जहाँ जहाँ कैमरा जा रहा था ...वहां वहां वो भी जा रहा था ....
इस बीमारी के बारे में थोडा बहुत मैं जानती थी ...लेकिन इसे प्रिजोरिया कहते हैं ये मैं नहीं जानती थी ....कैमरे के प्रति बड़ा आकर्षण देखा मैंने उसमे ....उसने मुझसे कहा ....दीदी हमारा फोटो खींचो ...मैंने कैमरा पर्सन से कहा उसकी फुटेज लेने को ....तो वो उसके साथ मस्ती करने लगा ...पहले गाना सुनाओ ...डांस करके दिखाओ ...तभी तुम्हारा फोटो खीचेंगे हम ... वो उसे पहले से जानता था ...उसने मुझे बताया कि ये हॉस्पिटल ही इसका घर है ....ये यहीं रहता है ...यही से स्कूल जाता है ...मैंने देखा सभी उससे बड़े प्यार से बात कर रहे थे ....वो खुश भी था ये देख के अच्छा लगा ...उसके बाद वो मुझे कैम्पस में इधर उधर दिखाई दे जाता था॥
फिर मैंने 'पा' देखी .... तब मैंने उसे और नजदीक से जाना ... उसके साथ भी वही सब समस्याएं थीं जो फिल्म में दिखाई गयी थीं ...फिर भी मैंने उसे हमेशा हँसते हुए देखा था ...मैंने उसे मेस में , आंटी की दुकान में और जूस कॉर्नर के आस पास ही देखा था ...वो मुझे जब भी देखता तो तपाक से कहता ...दीदी हमारा फोटो खीचो ...मैं केवल हंस के रह जाती ....मैंने उससे एक बार पूछा तुम्हारा घर कहाँ है तो उसने जवाब दिया हॉस्पिटल में ....मैंने कहा ये घर नहीं वो घर जहाँ मम्मी पापा रहते है ...तो वो पहले तो चुप हो गया ...मैंने दुबारा पूछा ...उसने मुझे देखा और कहा कलकत्ता ...और चला गया ...
फिर एक बार उसके स्कूल में जाना हुआ ...वो कक्षा दो में था ...छोटे छोटे बच्चों के साथ खेलने में लगा था ...स्कूल की प्रिंसिपल ने बताया कि वो पंद्रह साल का है ...और जब सात साल का था तब पता नहीं कैसे यहाँ आ गया था...फिर मैंने उसे उसकी टीचर से कहते सुना कि मैडम हमें छुट्टी चाहिए ....वो एक वाक्य को दो बार बोलता था ...वो फिर बोला मैडम दुर्गा पूजा है हमारे यहाँ हमें छुट्टी दे दो .....फिर उसने तुरंत बोला ..ईद भी आ रही है ...मैं उलझ के रह गयी ....ये तो सब जानता है ...बिलकुल सामान्य बच्चों की तरह...
मैं एक बार विशेष रूप से उसके लिए हॉस्पिटल गयी ...वो स्कूल गया था ...कुछ डॉक्टर्स से उसके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि ..ये ऐसा ही रहेगा ....इलाज संभव नहीं है ...हम सभी उसका पूरा ध्यान रखते है ...मैंने देखा सभी को उसकी चिंता थी ...
मैं घर आई तो महसूस किया कि मन का झंझावत थम गया है ....फिर सब सामान्य हो गया ।
कई दिनों बाद वो मुझे आंटी कि दुकान में मिला ...मुझे देखते ही बोला ....दीदी नमस्ते ...मैं हंस दी ...मैंने पूछा कैसे हो ...तो पहले तो वो अपनी चिर परिचित हंसी में हंसा फिर बोला ...ठीक हूँ ...फिर तुरंत ...आपका कैमरा कहाँ हैं ...मैं हंसने लगी ...मैंने कहा मेरे ऑफिस आना मैं तुम्हारी ढेर सारी फोटो खीचूंगी ....उसने कहा मैंने देखा है मिडिया का ऑफिस कल आऊंगा .फिर मैं सामान खरीदने लगी ....और दुकान से बाहर आ गयी ...अभी मैं जूस कॉर्नर तक ही पहुंची थी कि पीछे से आवाज आई ...दीदी ...मैंने पलटकर देखा वो अपनी टेढ़ी मेढ़ी सी चाल में दौड़ कर मेरे पास आ रहा था ...पास आकर बोला..दीदी आपका चाभी ....ये लो दुकान में छूट गया था ...अभी मैं उसे कुछ बोल पाती तब तक ....तब तक वो वापस लौट गया ...और मैं उसे तब तक देखती रही जब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो गया .

नानी की कहानी

मेरी नानी बहुत प्यारी थी ....वो सभी को प्यार करती थी ...क्या लिखूं उनके बारे में ...शब्द नहीं है मेरे पास ...अब वो नहीं हैं ....बहुत याद आती है उनकी....उनसे मिलना बस गर्मियों की छुट्टियों में ही हो पाता था ... उनके बारे में ज्यादा तो मम्मी से ही जानने को मिला ....मुझे समझ में नहीं आता कि कैसे कोई इतना स्वाभिमानी हो सकता है ....वो पढ़ी-लिखी नहीं थी ...लेकिन अनपढ़ भी नहीं थी ...लिखना पढ़ना जानती थी वो..नाना जी के जाने के साल भर बाद वो भी चली गयीं..भगवान के पास ..उनके आखिरी समय में मै उन्हें नहीं देख पायी..इस बात का बोझ हमेशा मेरे दिल पर रहेगा।
गर्मियों कि छुट्टी में जब हम सब घर पर इकठ्ठा होते थे तो बहुत खुश होती थी वो ....उनकी एक बाद जो मुझे हमेशा याद आती है ...वो हमेशा खाने के लिए कहती रहती थी सब को ...खाना खईलू ह ...कुछु खा ल ...अगर मै कहती कि नानी मैंने अभी खाना खाया है ...तो वो कहती ...अऊरी खा ल नाही त पेटवा झुरा जाई ...
शाम को जब सब सोकर उठते तो वो सबके लिए सिरफल का जूस बनाती ...मुझे अभी भी याद है उनके आगे के दांत नहीं थे ...और जब उन्हें कोई चीज़ ध्यान से देखनी होती थी तो आँखों में उत्सुकता के साथ उनका मुंह अपने आप खुल जाता था..तब बड़ी अच्छी लगती थी वो ....जब कभी उनकी याद आती है तो उनका यही चित्र आँखों के सामने आता है ...बहुत सुन्दर थी वो
जब कभी मुझे सोने के लिए कही जगह नहीं मिलती तो मैं उनके पास चली जाती थी ...गर्मियों में हम सब बच्चे छत पे सोते थे और मम्मी ,मौसी ,मामी और नानी ये सब लोग घर के अन्दर के आँगन में सोती थी ....नानी में से हमेशा एक ही खुशबु आती थी ..कोई ठंडा तेल ...या लौंग इलायची जैसी कोई खुशबु ...उनका ओढना , बिछौना, तकिया सब उन्ही की खुशबु लिए होते थे ।
उनकी एक बात जो मुझे कभी समझ में नहीं आती थी कि वो नाना जी से घूँघट क्यों करती थी ....
गाने बजाने की बड़ी शौक़ीन थी मेरी नानी ...कभी-कभी मैंने उन्हें देखा कि वो सूप से अनाज फटकते हुए सूप ही बजाने लगती थी ...और फिर ईचक दाना - बीचक दाना , दाने ऊपर दाना ॥
इतना प्यार था उनके अन्दर कि कभी भी ऐसा नहीं लगा कि नानी मौसी या मामी कि बेटी को मुझसे ज्यादा मानती हैं या मुझसे कम ...जो औरते घर में काम करने आती थी नानी उनसे भी खूब प्यार से बात करती थी ....उनसे भी पूछती कि खाना खाया है या नहीं ....
उनकी यादें और बाते इतनी हैं कि मैं उन्हें मात्र एक लेख में नहीं पिरो सकती ....अगर सच सच कहूँ तो मेरा दिल घर के किसी और सदस्य के लिए इतना नहीं कचोटता जितना कि नानी के लिए ...सब लोग कहते हैं ...देवी थीं वो ॥
मेरी माँ के रूप में नानी मेरे लिए आज भी जिन्दा हैं ....उनकी हंसी ,उनकी बातें सब कुछ मुझे नानी कि याद दिलाते हैं ....और सबसे ज्यादा तो ये कि मम्मी के दांत भी आगे से टुकड़े टुकड़े होकर टूट रहे हैं ....अभी जब मैं जब होली पे घर गयी थी तो मम्मी कह रही थी ...तोहार पापा कहेलं कि तू बूढा गईल हाउ ...मैं हंसने लगी ...मैंने कहा नहीं मम्मी अभी आप जवान हो ....आप मेरे साथ चलो मेरठ ...आपके दांत का इलाज करवा दूंगी ...मम्मी तैयार हो गयी ....ठीक ह अगली बार जब अईबू तब हम चलब तोहरी साथे ....
मैंने मम्मी को कह तो दिया अपने साथ चलने के लिए लेकिन फिर मैं मन ही मन सोच रही थी कि क्या खराबी है तुम्हारे दांतों में ...मत सही करवाओ इन्हें .... क्योंकि जब तुम हंसती हो तो बिलकुल नानी जैसी लगती हो.

Saturday, March 6, 2010

गदहिया गोल

ब्लॉग बनाये हुए काफी दिन हो गए लेकिन लिखा कुछ भी नहीं ....ऐसा नहीं है की टाइम नहीं मिला ....मिला था... पर जैसे ही मै कुछ लिखने जाती तो सोचती की ब्लॉग लिखने से पहले देख तो लूँ कि ब्लॉग लिखते कैसे हैं .....बहुत से ब्लॉग पढ़ डाले मैंने ....फिर तो उन्हें पढ़ने में ही उलझ के रह गयी मै ...अच्छा लगा ब्लॉग जगत में आकर ....कितना अच्छा लिखते हैं लोग ...मैं तो वैसा कभी नहीं लिख पाऊँगी....हाँ पर अपने जैसा लिखने कि कोशिश जरुर करुँगी ...जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया था तो मै किसी भी क्लास में जाकर बैठ जाती थी क्योंकि मै तब छोटी थी और मेरा नाम किसी भी क्लास में नहीं लिखवाया गया था...मुझे गुस्सा आता था कि सबकी कोई न कोई क्लास है और मै किसी भी क्लास में जाकर बैठ जाती हूँ ...तो मम्मी कहती थी कि तुम्हारा अभी गदहिया गोल है ...मतलब सब गलतियाँ माफ़ ...तो ब्लॉग जगत में ये मेरा गदहिया गोल है ....इसलिए यहाँ भी मेरी गलतियों को माफ़ किया जाये ...अभी लिखने को बहुत कुछ है ..बस ये समझ नहीं आ रहा कि कहाँ से शुरू करूँ ...
अभिव्यक्ति के आकाश में एक छोटी सी आवाज हमारी भी है ...शुरू करते हैं अपने अपने रास्ते कि खोज