Tuesday, March 22, 2011

अनकही ...

एक नवजात की त्रासदी पर कुछ लिखने के लिए शब्द नहीं चुन पा रही हूँ ...कुछ पंक्तियाँ लिखने के लिए भी भूमिका बांधनी पड़ रही है ...मैंने उसे कभी हँसते नहीं देखा... शायद उसे पता है की नियति ने उसके साथ कितना क्रूर खेल खेला है ...उस अबोध के लिए दुनिया की तमाम खुशियों की कामना में हृदयसे निकले कुछ शब्द ....

नियति की क्रूरता का दंश कैसे झेलोगे तुम

माँ की छाया में बैठकर उसके आँचल से कैसे खेलोगे तुम

कौन है तुम्हारा गुनाहगार ...?

कितने विश्वास के साथ तुम मेहमान बन कर आये थे हमारे आँगन में ...

तुम्हारी किलकारी ने गुंजाया था पूरा घर ...

नियति के भेद को तो तुम समझ भी नहीं सकते थे

तुम तो जानते थे माँ के आँचल में खुद को छिपाना

और पिता का असीमित प्यार पाना

ऐसे ही तो तुमने दुनिया को जाना ...

ख्वाबों से तो अभी पड़ा भी न होगा वास्ता

दुनिया की झलक तो अभी उस चेहरे में ही देखी होगी ...

जिसने तुमसे हमेशा के लिए ही चेहरा छुपाया ॥

अभी तो तुम समझ भी न पाए थे जीवन का मतलब

तुम्हे तो याद भी न होगी माँ के चेहरे की ममता

और तुमसे दूर जाने की उसकी तड़प ...

न ही याद होगा तुम्हे अपनी माँ का कभी न उठने के लिए सो जाना ॥

शायद तुमने रो रो कर अपने माँ को उठाया होगा

अपने क्रंदन से पिता को भी रुलाया होगा

फिर भी तुम्हारे हाथ शून्य ही आया होगा

तुम्हारा मासूम चेहरा ...सूनी आँखे और सौम्य स्पर्श ...

द्रवित कर देता है...

तुम्हे मिले जीवन की बाकी सभी खुशियाँ ...

मैं इश्वर से प्रार्थी हूँ ...

Wednesday, January 26, 2011

एक मुकम्मल जहाँ के प्रयास में मैं. . .

माँ कहती हैं ..लड़कियों को अपनी इच्छाएं दबानी पड़ती हैं
हमेशा
पर माँ क्या तुम ये बताओगी कि तब कितनी दुखी होती हो तुम
जब तुम्हे मुंह बंद रखने को कहा जाता है...
पापा के लिए छोड़ा सब कुछ तुमने - आत्मसम्मान तक
पर तुम्हारे आंसुओं से भी नहीं पिघलते पापा
तब कैसा लगता है माँ ..बताना ज़रा
सब ठीक करने कि कोशिश को झुठलाती हो तुम
ये कहकर कि 'जनम का दुःख कभी नहीं जाता'
सब कुछ सहकर भी तुम हो धरा सी शांत
सब को खुशियाँ बांटती ...स्नेह लुटाती
बहुत प्यारी हो तुम माँ ...
फिर भी मुझे तुम सा नहीं बनना ...
आत्मसम्मान पर चोट कभी नहीं सहना...
मैं बनाउंगी एक 'मुकम्मल जहाँ' अपने लिए
जहाँ होगी आत्मसम्मान को आधार देती ज़मीन ...और
परम संतोष देता खुला आसमान ॥