ये
नहीं होना चाहिए था...जो हुआ वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है....कहां जा रहे हैं हम...वो
जो हो रहा है वो अभी और बढ़ेगा या खत्म होगा...खत्म होगा तो कब होगा...हम सब संवेदना
शून्य हो गए हैं...बलात्कार और हत्या की घटनाओं पर हमारी प्रतिक्रिया बहुत सामान्य
होने लगी है...क्यों....क्यों...क्यों....
इस
विषय पर कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पाना भी मुश्किल था...अब जब बलात्कार की वो घटना
कुछ दिन पुरानी हो चली है...चुनावी दंगल की जीत हार आज सुर्खियां बनी हैं....तो ऐसे
में वो लड़की मुझे और याद आ रही है...उसके मेडिकल बुलेटिन में डाक्टरों ने जो बताया
वो अंदर तक हिला देने वाला था...डाक्टरों ने उसकी सारी आंतें निकाल दी हैं...उनके मुताबिक
उस लड़की के अंदर लोहे की राड जैसा कुछ डाला गया था और उसे तेजी से निकाला गया था जिसके
साथ उसकी आंतें भी बाहर आ गईं...कितना अमानवीय है ये...ऐसा तो राक्षस भी नहीं कर सकता...
अब
सवाल उस लड़की का जो जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है...उसकी गलती क्या थी...कि वो
लड़की थी...या वो देर रात बाहर गई थी...या उसने छोटे कपड़े पहने थे...या वो अपने ब्वायफ्रेंड
के साथ थी...इसमें कुछ भी तो आपत्तिजनक नहीं है...छोटे कपड़ों पर आपत्ति मत जताओ बुद्धिजीवी
नागरिकों...लड़की के कपड़े उसकी प्रापर्टी हैं...उसका शरीर उसकी प्रापर्टी है...तुम्हे
क्या दिक्कत है...तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी प्रापर्टी हैं उसे कंट्रोल करो...लड़की
के कपड़ों, उसकी
आदतें, उसकी
मित्र मंडली से तुम्हारी भावनाएं क्यों उबाल मारने लगती हैं...तुम्हारे तौर-तरीकों
में तो कोई दखल नहीं दिया जाता...नेता-मंत्री,कोर्ट-कचहरी
सभी की दलीलें सुन चुके हैं हम...अब क्या सुनना है ....और गलत होने का इंतजार करना
है...कानून व्यवस्था का हाल भी सब जानते हैं...फिर भी हम चुप रहते हैं...फिर भी इंतजार
करते हैं उन्ही के फैसलों का...और कुछ महम चैबीसी खाप पंचायत जैसा बे-सिर पैर का फैसला...Þबलात्कार की घटनाएं रोकनी हैं तो बच्चों की शादी जल्दी करा दो...वाह
भाई... आपा खोएं लड़के... और उसका भुगतान करें लड़कियां...ये बिल्कुल
गलत है...और एक मंत्री टी.वी को दोषी ठहराते सुने गए...मंत्री जी से कोई ये पूछे कि
वो किस अंधे युग में ले जाना चाहते हैं समाज को...
यहां
अब कहने के लिए कुछ भी नहीं बचता...मन में गुस्सा और बेबसी जैसा कुछ उमड़-घुमड़ कर
रहा है...लड़की के कपड़ों पर नियम लगा लो चलो...ऐसा करो भारत में बुर्का हर लड़की के
लिए जरूरी कर दो...लेकिन पक्का बताना कि क्या इससे बलात्कार रूक जाएंगे...नहीं ना...तो
लड़की के कपड़ों में दोष मत निकालो...उसे एक सुरक्षित वातावरण दो जिसमें वो अपनी मर्जी
का कुछ भी कर सके...संविधान में भी तो उसे बराबरी का अधिकार मिला है...फिर यहां क्यों
उसे अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है...
मुझे
खुद को आज की लड़की कहने में भी शर्म आती है...हर लड़की हर रोज टुकड़ों-टुकड़ों में
बलात्कार सहती है...घर में,आफिस में,बस
में,बाजार में हर जगह...हम कहां सुरक्षित हैं...कहीं भी तो नहीं...छेड़छाड़
की घटनाओं पर जब आवाज उठाई जाती है तो पुलिस उसे मामूली छेड़छाड़ बताती है...और वही
मामूली छेड़छाड़ आगे चलकर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को जन्म देती है...हमें बदलाव
की जरूरत है...बहुत बड़े बदलाव की...कानून व्यवस्था से लेकर बे सिर पैर के नियमों में
भी बदलाव आना है।
यहां
सवाल खौलने बेहद लाजमी हैं...क्योंकि ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर किसी के पास भी नहीं
है...मेरे-आपके किसी के भी नहीं...और हम खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं...मैं लानत भेजती
हूं इस बुद्धिजीविता पर...
इस
देह को लेकर कितनी-कितनी मौत मरती हैं लड़कियां...कहां-कहां से कितने-कितने स्तरों
पर उसके साथ अत्याचारों-अनाचारों और अनैतिकताओं के किस्से गुंथे जाते हैं...शर्म भी
शर्माने लगी है अब इन पतित कर्मों से...लेकिन नहीं शर्माया है तो एक Þपुरुष होने का भाव” जो सामाजिक स्तर पर इतनी-इतनी जगह इस कदर फैल
चुका है कि उसे निकाल पाना, धो पाना, पोंछ पाना कठिन लगता है कभी-कभी...।
पुरुष
तो शायद फिर भी समझने लगे हैं, सभंलने लगे हैं लेकिन पूरे देश की सदियों से
चली आ रही व्यवस्था में जो Þपुरुष
भाव” पनप चुका है उसे समझा पाना कठिन है। चाहे कितने ही कानून बना दिए
जाएं, चाहे
कितने ही फांसी के फंदे बना लिए जाएं लेकिन बदलाव की जरूरत मानसिकता और सोच में है।
हम
कहां जा रहे हैं...लड़कियों को लेकर समाज की इस दोहरी और नपुंसक सोच के साथ कितने आगे
बढ़ सकेंगे हम...शब्द गर्म होकर खौलते हैं लेकिन फिर ठंडे हो जाते हैं...क्यों...क्यों...क्यों