Thursday, April 29, 2010

कभी-कभी यूँ ही...




कभी-कभी यूँ ही गुमसुम रहना अच्छा लगता है
तमाम नजारों के बाद भी शून्य में देखना
अच्छा लगता हैं...
किसी कि परवाह किये बिना
पत्थर को ठोकर मारते हुए
आगे बढ़ना...
अच्छा लगता है
ग़मों को आंच न दूँ ...
न झूमूँ ख़ुशी में
इसीलिए तो कभी-कभी
संवेदनहीन होना अच्छा लगता है...
जब शहर में रौशनी को तरस रहे हो लोग
तब अँधेरे में खोना अच्छा लगता है...

3 comments:

  1. जब शहर में रौशनी को तरस रहे हो लोग
    तब अँधेरे में खोना अच्छा लगता है...

    लाजवाब रचना..........

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  2. kuch aisa hi mere saath bhi hota hai,
    nadaanummidien.blogspot.com pr bhi aaye

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