Thursday, April 29, 2010

कभी-कभी यूँ ही...




कभी-कभी यूँ ही गुमसुम रहना अच्छा लगता है
तमाम नजारों के बाद भी शून्य में देखना
अच्छा लगता हैं...
किसी कि परवाह किये बिना
पत्थर को ठोकर मारते हुए
आगे बढ़ना...
अच्छा लगता है
ग़मों को आंच न दूँ ...
न झूमूँ ख़ुशी में
इसीलिए तो कभी-कभी
संवेदनहीन होना अच्छा लगता है...
जब शहर में रौशनी को तरस रहे हो लोग
तब अँधेरे में खोना अच्छा लगता है...

Monday, April 19, 2010

Sunday, April 4, 2010

सफ़र कैसे तय होगा


मैं चाहती हूँ आकाश की उन ऊंचाईयों को छूना


जहां पहले कभी कोई न गया हो


उन ऊंचाईयों पर पहुँच कर मैं


आकाश हो जाना चाहती हूँ


सारे जहां की खुशियाँ अपने दामन में समेट कर


तुम पर लुटा देना चाहती हूँ


मगर अफ़सोस ...


तुम जो नहीं हो


...अब तक संग मेरे


तुम्हारे बगैर ये सफ़र ...


कैसे तय होगा...?