Tuesday, July 13, 2010

अभिशिप्त जीवन

वो ...जिनकी आँखे हमेशा ही कुछ मांगती हैं ...
क्योंकि स्वाभिमान तो हमारे-आपके लिए जरूरी होता है ...
लेकिन उनके लिए नहीं ...क्योंकि स्वाभिमान से पेट नहीं भरता
क्योंकि उनकी समस्याएं रोटी से शुरू होकर ...
रोटी पर ही ख़तम होती हैं ...केवल रोटी ...
बस पेट की ज्वाला शांत करने के लिए
जो कभी हाथ फैलाते हैं तो ...एक रूपये से कुछ नहीं मांगते
वो जानते हैं उनकी सीमायें और उनकी चादर की लम्बाई भी
उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं हमें ...इसी आस में कि ...
कुछ लोगों के एक-एक रूपये से आज उनकी रोटी बनेगी
मगर अफ़सोस... हमारे एक रूपये भी उनकी रोटी से कीमती हो जाते हैं ...
और हम ...उन्हें दूर से ही "आगे बढ़ने" का इशारा कर देते हैं ...
ये जानकर भी कि ...उस एक रूपये से न हम कंगाल होंगे और न वो मालामाल ...
फिर भी ...यही होता आया है हमेशा से
अपने खुशहाल जीवन पर गर्व करते हुए हम एक बार भी उनके बारे में नहीं सोचते ...
जिन्हें मौत भी किश्तों में नसीब होती है ...

Monday, July 12, 2010

गले से उतरती नहीं बात...


तेज़ बनो ...भलाई का जमाना नहीं है
भला करोगी कुछ नहीं मिलेगा...
अपने बारे में सोचो ...खुद से मतलब रखो ...
और भी नहीं पता नहीं क्या-क्या ...
आते- जाते सिखा जाते हैं लोग ...
और मैं मौन ...
तमाम सवालों से घिरी रह जाती हूँ ...
कौन देगा जवाब ...
आप दोगे पापा ?...
या माँ तुम...?
बोलो ...
मैं ...जो मैं हूँ ...
जानती हूँ ...खुद को नहीं बदल पाउंगी ...
लेकिन जानती हूँ आज की इंसानियत
तभी तो ...केवल खुद से मतलब रखने की ...
गले से उतरती नहीं बात ...

Thursday, July 8, 2010

क्योंकि अब जीना है ...


जिंदगी बिताने को नहीं
अब जिंदगी को जीवन देने के लिए जीना है
बहुत हुआ अब दामन भिगोना ...
किसी की मुस्कान बनने को ...
अब जीना है
हमेशा ही चाहा कोई मार्गदर्शक ...
मगर अब ...
खुद किसी का सहारा बनने को जीना है
जिंदगी के रंगमंच पर एक बेहतरीन किरदार जीने को ...
अब मुझे जीना है ...
अतीत की तिलांजलि देकर ...
भविष्य खुशहाल बनाने को ...
अब इस वर्तमान में आत्मनिर्भर होकर...
मुझे जीना है ...

Sunday, July 4, 2010

मानव जीवन




यह कविता मैंने कॉलेज के दिनों में कॉलेज की ही मैगजीन के लिए लिखी थी ....जो प्रकाशित भी हुई थी ...इसे आज अपने ब्लॉग में शामिल कर रही हूँ ...



जल ,वायु ,मृदा ,अग्नि या आकाश ...


कौन आया पृथ्वी पर सर्वप्रथम


कितना अनबूझ है यह तथ्य ...


जीवन कि उत्पत्ति का


आखिर क्या था सर्वप्रथम ?


क्या गहन अन्धकार था ?


या थी रौशनी की चकाचौंध


क्या केवल जल हा जल था ?


या वनस्पति एकाकी ...


कुछ तो रहा होगा !


किसने देखा होगा वह रोमांचक प्रक्रम ...


जीवन की उत्पत्ति का !


आखिर क्या है सत्य जीवन का ?


क्या सृष्टि है ब्रह्मा की रचना ?


या माना जाए मिलर का प्रयोग...


जड़-तत्वों से बना चेतन !


क्या बना होगा जीवन...


उत्पत्ति के उन आठ चरणों में ?


या सचमुच रही होगी कोई ...


अदृश्य शक्ति !


कौन बताएगा ???


सत्य मानव जीवन का !!!


ग्रन्थ ?


विज्ञान ?


प्रज्ञा ?




Thursday, July 1, 2010

एक कविता


पढ़ा था कहीं...


कि मन के भावों को बस लिख भर देने से


बन जाती है कविता ...


तो फिर कहाँ हैं मेरी तमाम कवितायेँ


जो मैंने कभी लिखनी चाही थी


पर लिख नहीं पायी थी


भावनाओं के आगे बेबस हो जाती हूँ मैं


नहीं उठती कलम उन भावनाओं को लिखने को


जिन्होंने मुझे हजार बार तोडा है


मेरे हालातों पे मुझे ही तरस खाने को छोड़ा है


मुझे भयभीत किया है जमाने के डर से


रुलाया है मुझे स्याह रातों में


...वो सब बातें जो दुःख देती हैं मुझे


उन्हें कविता का रूप देने का साहस कहाँ से लाऊं मैं ...