Wednesday, January 26, 2011

एक मुकम्मल जहाँ के प्रयास में मैं. . .

माँ कहती हैं ..लड़कियों को अपनी इच्छाएं दबानी पड़ती हैं
हमेशा
पर माँ क्या तुम ये बताओगी कि तब कितनी दुखी होती हो तुम
जब तुम्हे मुंह बंद रखने को कहा जाता है...
पापा के लिए छोड़ा सब कुछ तुमने - आत्मसम्मान तक
पर तुम्हारे आंसुओं से भी नहीं पिघलते पापा
तब कैसा लगता है माँ ..बताना ज़रा
सब ठीक करने कि कोशिश को झुठलाती हो तुम
ये कहकर कि 'जनम का दुःख कभी नहीं जाता'
सब कुछ सहकर भी तुम हो धरा सी शांत
सब को खुशियाँ बांटती ...स्नेह लुटाती
बहुत प्यारी हो तुम माँ ...
फिर भी मुझे तुम सा नहीं बनना ...
आत्मसम्मान पर चोट कभी नहीं सहना...
मैं बनाउंगी एक 'मुकम्मल जहाँ' अपने लिए
जहाँ होगी आत्मसम्मान को आधार देती ज़मीन ...और
परम संतोष देता खुला आसमान ॥

6 comments:

  1. फिर भी मुझे तुम सा नहीं बनना ...
    आत्मसम्मान पर चोट कभी नहीं सहना...
    मैं बनाउंगी एक 'मुकम्मल जहाँ' अपने लिए
    जहाँ होगी आत्मसम्मान को आधार देती ज़मीन ...और
    परम संतोष देता खुला आसमान ॥

    आमीन ....शुभकामनायें ...अच्छी प्रस्तुति

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  2. हर माँ ,बेटी के बीच का संवाद...
    सटीक रचना.

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  3. yeh ardhsatya hai. papa hamesha eise nahi hote. sasti vahvahi nahi, kuchh practical bhi hona chahiye.

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  4. @ Kamlesh jha....Sir maine ye nahi kaha ki ye ardh satya hai ya purna satya...lekin ye satya hai....or haan Papa bahut pyaare hain mere...lekin har insaan k vyaktitva k kayi pahlu hote hain...papa k vyaktitva ka ye aisa pahlu hai jo mujhe achha nahi lagta...or ek baat papa ki galtiyan batane se kahi vahvahi nahi milti....hope u understand.

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  5. मेरी हिंदी अच्छी नहीं है कि, अब मैं सीख रहा हूँ. अपने ब्लॉग पसंद आया!! :)

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