Monday, February 18, 2013

मैं आजाद हूं....



कभी सोचा नहीं था कि कभी जब स्त्री विमर्श पर कोई लेख लिखूंगी तो स्त्रियों की बदहाली का एक बड़ा उदाहरण सामने होगा...ज्यादा फर्क नहीं पड़ता अगर ये उदाहरण न भी होता...लेकिन इस एक हादसे ने सभी को जगा दिया है...अपने हक के लिए लड़कियां आवाज उठाने लगी हैं...समाज को भला लगे या बुरा स्त्रियों की आजादी के नए मापदंड तैयार हो रहे हैं...हालांकि हमारे इस चोट खाए मुल्क में इन नए मापदंडों को अमल में आने में काफी समय लगेगा...संकीर्ण मानसिकता से भरे लोगों के लिए लड़की की इस नई परिभाषा को स्वीकार करना आसान नहीं होगा...पर एक दिन सोच जरूर बदलेगी...ऐसा मेरा विश्वास है...वो नई परिभाषा क्या है जरा इस पर बात करते हैं...
1-कोई भी लड़की अब बेचारी नहीं है....और अपनी सेफ्टी के लिए अब वो किसी मर्द का सहारा नहीं लेगी...पिता और भाई का भी नहीं।
2-वो अपनी मर्जी की मालिक है...माता-पिता भी उसे उतनी ही मर्यादाएं सिखाएं जितनी उसकी अच्छी परवरिश के लिए जरूरी हैं।
3-लड़की को भी अपने भाई के बराबर ही शिक्षा लेने का अधिकार है...बेटे को इंजीनियरिंग की महंगी पढ़ाई और बेटी को साधारण ग्रेजुएशन !....नहीं... शिक्षा उसका हक है और वो भी पढ़ेगी ...भाई के बराबर पढ़ेगी।
4-बड़ी होती बेटी पर माता-पिता फालतू के नियम-कायदे थोपने से बाज आएं और आवारा बेटे पर थोड़ी सी लगाम लगाएं...।
5-पहले लड़की को ज्यादा इसलिए नहीं पढ़ाया जाता था कि उसे दूसरे के घर जाना है और वहां जाकर रोटियां बेलनी है....लेकिन मम्मियों और पापाओं शादी के बाद मैं रोटी बनाउं या गोबर पाथूं...तब तक पढ़ूंगी जब तक मेरा मन करेगा।
6-और हां आस-पड़ोस और रिश्तेदार मेरी चिंता बिल्कुल न करें...मेरी शादी जब भी होगी आपको जरूर आमंत्रित किया जाएगा पूड़ी खाने के लिए।
7-पब्लिक प्लेस और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अगर मुझसे चिपकने की कोशिश की तो ऐसी जगह मारूंगी कि पुरूष नहीं रह जाओगे।
8-मिस्टर ब्वायफ्रेंड और हसबैंड...कान खोलकर सुन लो...तुम्हारी लाइफ पार्टनर हूं...तुम्हारी पाॅपर्टी नहीं...तो तुम भी लिमिट में रहो...मुझसे जुड़े फैसले मैं खुद ले सकती हूं...तुम्हार दखल सिर्फ साझा फैसलों में होगा।
9-पति-पत्नी दोनों अगर वर्किंग हैं तो दोनों की घर के काम में बराबर की हिस्सेदारी होगी...तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं मैं...लाइफ पार्टनर हूं...तो हर चीज को साझा करना होगा...जिम्मेदारियों से लेकर घर के काम में।
10-ससुराल के भी दायरे तय किए जाएंगे...बहू हूं कठपुतली नहीं जो सास के इशारों पर नाचूं...बहू होने का फर्ज जानती हूं मैं...साड़ी भारी पहननी है या हल्की ये मैं तय करूंगी...बालों में तेल लगाना है तो लगाउंगी...और जूड़ा भी बनाउंगी...सास की सहेलियों के लिए बाल नहीं फहराउंगी।
और अगर लाइफ पार्टनर के साथ ट्यूनिंग जमती नहीं है तो मैं उसे रिजेक्ट कर सकती हूं...और जब मैं ऐसा करूं तो प्लीज मुझे अबला न समझा जाए...एंड फाॉर गाॉड सेक मुझे सहानुभूति तो बिल्कुल न दी जाए...क्योंकि मैं आजाद हूं....।

Thursday, December 20, 2012

क्यों....क्यों...क्यों....



ये नहीं होना चाहिए था...जो हुआ वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है....कहां जा रहे हैं हम...वो जो हो रहा है वो अभी और बढ़ेगा या खत्म होगा...खत्म होगा तो कब होगा...हम सब संवेदना शून्य हो गए हैं...बलात्कार और हत्या की घटनाओं पर हमारी प्रतिक्रिया बहुत सामान्य होने लगी है...क्यों....क्यों...क्यों....
इस विषय पर कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पाना भी मुश्किल था...अब जब बलात्कार की वो घटना कुछ दिन पुरानी हो चली है...चुनावी दंगल की जीत हार आज सुर्खियां बनी हैं....तो ऐसे में वो लड़की मुझे और याद आ रही है...उसके मेडिकल बुलेटिन में डाक्टरों ने जो बताया वो अंदर तक हिला देने वाला था...डाक्टरों ने उसकी सारी आंतें निकाल दी हैं...उनके मुताबिक उस लड़की के अंदर लोहे की राड जैसा कुछ डाला गया था और उसे तेजी से निकाला गया था जिसके साथ उसकी आंतें भी बाहर आ गईं...कितना अमानवीय है ये...ऐसा तो राक्षस भी नहीं कर सकता...
अब सवाल उस लड़की का जो जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है...उसकी गलती क्या थी...कि वो लड़की थी...या वो देर रात बाहर गई थी...या उसने छोटे कपड़े पहने थे...या वो अपने ब्वायफ्रेंड के साथ थी...इसमें कुछ भी तो आपत्तिजनक नहीं है...छोटे कपड़ों पर आपत्ति मत जताओ बुद्धिजीवी नागरिकों...लड़की के कपड़े उसकी प्रापर्टी हैं...उसका शरीर उसकी प्रापर्टी है...तुम्हे क्या दिक्कत है...तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी प्रापर्टी हैं उसे कंट्रोल करो...लड़की के कपड़ों, उसकी आदतें, उसकी मित्र मंडली से तुम्हारी भावनाएं क्यों उबाल मारने लगती हैं...तुम्हारे तौर-तरीकों में तो कोई दखल नहीं दिया जाता...नेता-मंत्री,कोर्ट-कचहरी सभी की दलीलें सुन चुके हैं हम...अब क्या सुनना है ....और गलत होने का इंतजार करना है...कानून व्यवस्था का हाल भी सब जानते हैं...फिर भी हम चुप रहते हैं...फिर भी इंतजार करते हैं उन्ही के फैसलों का...और कुछ महम चैबीसी खाप पंचायत जैसा बे-सिर पैर का फैसला...Þबलात्कार की घटनाएं रोकनी हैं तो बच्चों की शादी जल्दी करा दो...वाह भाई... आपा खोएं लड़के... और उसका भुगतान करें लड़कियां...ये बिल्कुल गलत है...और एक मंत्री टी.वी को दोषी ठहराते सुने गए...मंत्री जी से कोई ये पूछे कि वो किस अंधे युग में ले जाना चाहते हैं समाज को...
यहां अब कहने के लिए कुछ भी नहीं बचता...मन में गुस्सा और बेबसी जैसा कुछ उमड़-घुमड़ कर रहा है...लड़की के कपड़ों पर नियम लगा लो चलो...ऐसा करो भारत में बुर्का हर लड़की के लिए जरूरी कर दो...लेकिन पक्का बताना कि क्या इससे बलात्कार रूक जाएंगे...नहीं ना...तो लड़की के कपड़ों में दोष मत निकालो...उसे एक सुरक्षित वातावरण दो जिसमें वो अपनी मर्जी का कुछ भी कर सके...संविधान में भी तो उसे बराबरी का अधिकार मिला है...फिर यहां क्यों उसे अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है...
मुझे खुद को आज की लड़की कहने में भी शर्म आती है...हर लड़की हर रोज टुकड़ों-टुकड़ों में बलात्कार सहती है...घर में,आफिस में,बस में,बाजार में हर जगह...हम कहां सुरक्षित हैं...कहीं भी तो नहीं...छेड़छाड़ की घटनाओं पर जब आवाज उठाई जाती है तो पुलिस उसे मामूली छेड़छाड़ बताती है...और वही मामूली छेड़छाड़ आगे चलकर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को जन्म देती है...हमें बदलाव की जरूरत है...बहुत बड़े बदलाव की...कानून व्यवस्था से लेकर बे सिर पैर के नियमों में भी बदलाव आना है।
यहां सवाल खौलने बेहद लाजमी हैं...क्योंकि ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर किसी के पास भी नहीं है...मेरे-आपके किसी के भी नहीं...और हम खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं...मैं लानत भेजती हूं इस बुद्धिजीविता पर...
इस देह को लेकर कितनी-कितनी मौत मरती हैं लड़कियां...कहां-कहां से कितने-कितने स्तरों पर उसके साथ अत्याचारों-अनाचारों और अनैतिकताओं के किस्से गुंथे जाते हैं...शर्म भी शर्माने लगी है अब इन पतित कर्मों से...लेकिन नहीं शर्माया है तो एक Þपुरुष होने का भाव जो सामाजिक स्तर पर इतनी-इतनी जगह इस कदर फैल चुका है कि उसे निकाल पाना, धो पाना, पोंछ पाना कठिन लगता है कभी-कभी...।
पुरुष तो शायद फिर भी समझने लगे हैं, सभंलने लगे हैं लेकिन पूरे देश की सदियों से चली आ रही व्यवस्था में जो Þपुरुष भाव पनप चुका है उसे समझा पाना कठिन है। चाहे कितने ही कानून बना दिए जाएं, चाहे कितने ही फांसी के फंदे बना लिए जाएं लेकिन बदलाव की जरूरत मानसिकता और सोच में है।
हम कहां जा रहे हैं...लड़कियों को लेकर समाज की इस दोहरी और नपुंसक सोच के साथ कितने आगे बढ़ सकेंगे हम...शब्द गर्म होकर खौलते हैं लेकिन फिर ठंडे हो जाते हैं...क्यों...क्यों...क्यों
  

Thursday, September 13, 2012

तवस्सुम...


उस दिन मैंने आॅफिस से छुट्टी ली थी...तबियत ठीक नहीं थी...मैं अपने कमरे में आराम कर रही थी...बहुत देर से बाहर से थोड़ी-थोड़ी आवाज आ रही थी...मम्मी किसी से बात कर रहीं थीं...उत्सुकतावश मैने खिड़की से झांका...मम्मी एक लड़की से बात कर रहीं थीं...मैं फिर सो गई...थोड़ी देर बाद मम्मी उसे अंदर ले आईं और मुझे उठाया...मैं उसके पास गई...मैने देखा वो लड़की शादीशुदा थी...बेहद कमजोर सी...आंखों ने नीचे काले घेरे...गाल पिचके हुए...गोद में दो-ढाई साल का बच्चा...मेरे आते ही औपचारिकतावश उसने एक खाली सी मुस्कान दी...वो हमारे घर काम मांगने आई थी...पहले लगा कि गरीबी ने उसे घर घर काम मांगने को मजबूर किया होगा...फिर उसके शरीर पर कुछ चोट के पुराने निशान दिखे...फिर लगा...वजह कोई और है...पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई...ये नीजी सवाल था और उसकी उदासी से जाहिर था कि वो परेशान है...लेकिन मेरी मां उससे उसके बारे में पूछने लगीं...तुम्हारी शादी कब हुई...तुम्हारा पति कैसा है...ससुराल कहां है...वगैरह...वगैरह
उसने बताया तीन साल पहले उसकी शादी हुई थी...पति शराब पीता है...और उसे मारता है...ये बात बहुत आम थी...निचले तबके से अकसर ऐसी खबरें आती रहती हैं...फिर वो खुद ही अपने बारे में बताने लगी...अपना दुख कहने को बैचेन सी लग रही थी...मैंने कहा डरो मत...मैं तुम्हारी मदद करूंगी...
उसके नीरस चेहरे पर आत्म विश्वास के हल्के चिन्ह उभर आए...उसने निर्बाध बोलना शुरू किया...मेरा पति शराब पीता है...मायके से पैसे मांगने को कहता है...उसकी चाची से उसके सम्बंध हैं...अब जब ससुराल वालों के साथ मिलकर पति ने उसकी जान लेने की कोशिश की तो वो अपने मायके चली आई...लेकिन बदनसीबी ने यहां भी साथ नहीं छोड़ा...मां ने कह दिया.... पति मारे या पीटे उसी के पास जा...
अपने मां-बाप से ये सुनकर उसे कैसा लगा होगा ये बताने की जरूरत नहीं है...लेकिन वो वहीं रूक गई...मां ने एक पुराना सीलन से भरा बंद कमरा उसके लिए खोल दिया बस....अपने और अपने बच्चे के खाने पीने का इंतजाम उसे खुद करना है...
मुझे पहली बार किसी औरत की व्यथा को लेकर मन पर भारीपन नहीं लगा...उसके जज्बे को देखकर खुशी हुई...मैंने और मम्मी ने उसे विश्वास दिलाया की अब सब ठीक हो जाएगा...
घर में मैं, मम्मी और पापा तीन लोग हैं इसलिए ज्यादा काम भी नहीं है...उसने कहा सिर्फ आज के लिए कुछ काम करवा लो पैसे की जरूरत है...मां ने उसे पैसे दिए और कुछ कपडे़ भी...उम्मीद है कुछ दिनों में उसके लिए काम की व्यवस्था भी हो जाएगी...
एक जो बात उसकी अच्छी लगी...वो एक बार भी नहीं रोई...जिसे मैं इंसान की सबसे बड़ कमजोरी मानती हूं...लोग औरत को कमजोर मानते हैं और उसके आसुंओं को उसका हथियार...लेकिन अब औरत की परिभाषा बदल रही है...अब वो कमजोर नहीं है...उसके बदले हुए रूप को स्वीकारने के लिए पुरूष वर्ग तैयार रहे...

Wednesday, September 12, 2012

अपराजिता...

अभिव्यक्ति बहुत जरूरी है...चाहे किसी भी माध्यम से हो...शब्दों में बांधकर कागज पर लिख दो या भावनाओं के साथ बोल डालो...मेरे लिए अभिव्यक्ति कच्चे दूध की तरह है...ऐसे ही छोड़ दिया तो गंधाने लगेगा और जरा सी आंच दिखा दी तो उबल पड़ेगा...उबलना ज्यादा अच्छा है...गंधाने से...भावनाओं को खुल कर अभिव्यक्त करो नहीं तो अंदर ही अंदर वो न जाने कौन सा खड़मंडल मचा दें...
मै नारीवाद की समर्थक हूं...इसलिए नहीं कि मैं खुद औरत हूं...ना...इसी सोच के साथ मैने अगर पुरूष रूप में जन्म लिया होता तो भी मैं औरत और उसकी जिंदगी को इसी नजरिए से देखती...ये कहना तो बिलकुल भी गलत नहीं होगा कि हमारा समाज औरत को “वस्तु“ के नजरिए से देखता है...बहुत कम होंगे जो सही मायनों में औरत को औरत का दर्जा देते हैं...एक खुशहाल परिवार...(जो सिर्फ बाहरी लोगों को खुशहाल दिखता है)...उस खुशहाली के पीछे औरत के कितने समझौते होते हैं...ये खुद वो औरत भी नहीं जानती...परिवार को हर हाल में खुश देखना उसकी कमजोरी बन जाती है और वो हर खुशी के लिए अपने अस्तित्व को भूलती जाती है...
अच्छा होता अगर ये सब किसी वर्ग विशेष की औरतों के साथ होता...लेकिन हमारे पुरूष प्रधान समाज में कहीं भी औरत और आदमी में समानता नहीं दिखती...दिन भर ईंट ढोने वाली औरत से लेकर किसी कंपनी की सीईओ तक इस असमानता की शिकार हैं...
नारीवाद पर मैं अपनी अभिव्यक्ति बोलकर देना ज्यादा पसंद करूंगी लेकिन उसके लिए सही प्लेटफार्म अभी मेरे पास नहीं हैं...लिखकर अभिव्यक्ति देने से कई बातें छूट जाती हैं...फिर भी मैं लिखूंगी...अपनी अब तक की जिंदगी में मैंने औरत को खूब अच्छे से जान लिया है...औरत पर कोई रोचक लेख लिखना मेरे बस की बात नहीं है...
मैं पेशे से पत्रकार हूं...पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में मैं कई औरतों से मिली हूं और उन्हे बहुत बारीकी से आब्जर्व किया...कुछ सीधी-सादी,कुछ तेज-तर्रार कुछ बहुत बुरी...कुछ अपने जीवन से खुश और कुछ निराश...कई वाकये मेरे ही सामने हुए हैं जिन्होने मुझे द्रवित कर दिया...गांव में धोबन चाची को उनके पति ने सबके सामने लथार-लथारकर मारा...क्यूं मारा पता नहीं,दिल्ली जैसे शहर में अपनी बहन की शादी में ब्यूटीशियन से सजती औरत को उसके पति ने सबके सामने जोरदार तमाचा जड़ दिया...बस इसलिए कि मुझ पर जिम्मेदारियां हैं और तुम्हे सजने की पड़ी है...गाली-गलौच और न जाने क्या-क्या, ट्रेन में मिली लड़की को छेड़ते गंवार लड़के...उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से गिरते मोटे-मोटे आंसू और उसको देखती लाचार मैं...और भी ऐसी कई घटनाएं मैने खुद देती हैं...मेरी आत्मा खुद से विद्रोह कर उठती है ये सब देखकर..मैने हर बार इन सब पर कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन लिखने से पहले ही मैं असहाय हो जाती थी सोच-सोचकर...इन्ही सब खयालों से लदर-बदर मैं आज तक मैं कुछ नहीं लिख पाई...लेकिन फिर से कुछ घटित हुआ मेरे सामने...घटित क्या हुआ जिस पर बीती थी उसने अपनी आप बीती खुद सुनाई...बहुत भयावह सच...उसकी जिंदगी पता नहीं अब खतम हो गई है या अब शुरू हुई है...
उसकी कहानी अगली पोस्ट में...

Tuesday, March 22, 2011

अनकही ...

एक नवजात की त्रासदी पर कुछ लिखने के लिए शब्द नहीं चुन पा रही हूँ ...कुछ पंक्तियाँ लिखने के लिए भी भूमिका बांधनी पड़ रही है ...मैंने उसे कभी हँसते नहीं देखा... शायद उसे पता है की नियति ने उसके साथ कितना क्रूर खेल खेला है ...उस अबोध के लिए दुनिया की तमाम खुशियों की कामना में हृदयसे निकले कुछ शब्द ....

नियति की क्रूरता का दंश कैसे झेलोगे तुम

माँ की छाया में बैठकर उसके आँचल से कैसे खेलोगे तुम

कौन है तुम्हारा गुनाहगार ...?

कितने विश्वास के साथ तुम मेहमान बन कर आये थे हमारे आँगन में ...

तुम्हारी किलकारी ने गुंजाया था पूरा घर ...

नियति के भेद को तो तुम समझ भी नहीं सकते थे

तुम तो जानते थे माँ के आँचल में खुद को छिपाना

और पिता का असीमित प्यार पाना

ऐसे ही तो तुमने दुनिया को जाना ...

ख्वाबों से तो अभी पड़ा भी न होगा वास्ता

दुनिया की झलक तो अभी उस चेहरे में ही देखी होगी ...

जिसने तुमसे हमेशा के लिए ही चेहरा छुपाया ॥

अभी तो तुम समझ भी न पाए थे जीवन का मतलब

तुम्हे तो याद भी न होगी माँ के चेहरे की ममता

और तुमसे दूर जाने की उसकी तड़प ...

न ही याद होगा तुम्हे अपनी माँ का कभी न उठने के लिए सो जाना ॥

शायद तुमने रो रो कर अपने माँ को उठाया होगा

अपने क्रंदन से पिता को भी रुलाया होगा

फिर भी तुम्हारे हाथ शून्य ही आया होगा

तुम्हारा मासूम चेहरा ...सूनी आँखे और सौम्य स्पर्श ...

द्रवित कर देता है...

तुम्हे मिले जीवन की बाकी सभी खुशियाँ ...

मैं इश्वर से प्रार्थी हूँ ...

Wednesday, January 26, 2011

एक मुकम्मल जहाँ के प्रयास में मैं. . .

माँ कहती हैं ..लड़कियों को अपनी इच्छाएं दबानी पड़ती हैं
हमेशा
पर माँ क्या तुम ये बताओगी कि तब कितनी दुखी होती हो तुम
जब तुम्हे मुंह बंद रखने को कहा जाता है...
पापा के लिए छोड़ा सब कुछ तुमने - आत्मसम्मान तक
पर तुम्हारे आंसुओं से भी नहीं पिघलते पापा
तब कैसा लगता है माँ ..बताना ज़रा
सब ठीक करने कि कोशिश को झुठलाती हो तुम
ये कहकर कि 'जनम का दुःख कभी नहीं जाता'
सब कुछ सहकर भी तुम हो धरा सी शांत
सब को खुशियाँ बांटती ...स्नेह लुटाती
बहुत प्यारी हो तुम माँ ...
फिर भी मुझे तुम सा नहीं बनना ...
आत्मसम्मान पर चोट कभी नहीं सहना...
मैं बनाउंगी एक 'मुकम्मल जहाँ' अपने लिए
जहाँ होगी आत्मसम्मान को आधार देती ज़मीन ...और
परम संतोष देता खुला आसमान ॥

Tuesday, July 13, 2010

अभिशिप्त जीवन

वो ...जिनकी आँखे हमेशा ही कुछ मांगती हैं ...
क्योंकि स्वाभिमान तो हमारे-आपके लिए जरूरी होता है ...
लेकिन उनके लिए नहीं ...क्योंकि स्वाभिमान से पेट नहीं भरता
क्योंकि उनकी समस्याएं रोटी से शुरू होकर ...
रोटी पर ही ख़तम होती हैं ...केवल रोटी ...
बस पेट की ज्वाला शांत करने के लिए
जो कभी हाथ फैलाते हैं तो ...एक रूपये से कुछ नहीं मांगते
वो जानते हैं उनकी सीमायें और उनकी चादर की लम्बाई भी
उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं हमें ...इसी आस में कि ...
कुछ लोगों के एक-एक रूपये से आज उनकी रोटी बनेगी
मगर अफ़सोस... हमारे एक रूपये भी उनकी रोटी से कीमती हो जाते हैं ...
और हम ...उन्हें दूर से ही "आगे बढ़ने" का इशारा कर देते हैं ...
ये जानकर भी कि ...उस एक रूपये से न हम कंगाल होंगे और न वो मालामाल ...
फिर भी ...यही होता आया है हमेशा से
अपने खुशहाल जीवन पर गर्व करते हुए हम एक बार भी उनके बारे में नहीं सोचते ...
जिन्हें मौत भी किश्तों में नसीब होती है ...